Madhu varma

Add To collaction

लेखनी कविता - साँझ-2 - जगदीश गुप्त

साँझ-2 / जगदीश गुप्त


घन-छाया में सोती हों,
ज्यों श्रमित अमा की रातें।
वह केश-पाश बेसुध सा,
करता समीर से बातें।।१६।।

या भूल गये हो निज को,
अपनी सीमा से बढ़कर।
चरणों को चूम रहे थे,
क्यों मुक्त केश सिर चढ़कर।।१७।।

बँध गये स्वयं बँधन भी,
श्यामल सुषुमा श्रेणी में।
छिव सागर लहराते थे,
उस एक विषम वेणी में।।१८।।

आनन-सरोज को तजकर,
अथवा अलियों की अवली।
सारी निशि बंदी रह कर,
यौवन-प्रभात में निकली।।१९।।

कौमुदी छीन लेने को,
चल पड़े सघन श्यामल घन।
शशि के मुख पर बिखरी थी,
किसकी अलकों की उलझन।।२०।।

लख वंिकम भू-रेखा से,
निज धनु-प्रभाव भी धीमा।
मानो मनोज ने रच दी,
मुख-छिव असीम की सीमा।।२१।।

गँूथी अबोध किलकाएं
तारिका पाँित सकुचाई।
केशों की सघन निशा में,
चेतना स्वयं अलसाई।।२२।।

उस अरूण सलज आनन में,
वे दो रँगराती आँखें।
किस तितली ने फैला दीं
पाटल-प्रसून पर पाँखें।।२३।।

कब दी बिखेर यौवन ने,
मुख पर कुंकुम-मंजुषा।
सकुचाई साँझ नयन में,
विकसी कपोल पर ऊषा।।२४।।

कब नूपुर के कलरव से,
तन में तरूणाई जागी।
कब, किट-केहिर के भय से,
भोली किशोरता भागी।।२५।।

कब आँखोें के आँगन में,
पुतली ने रास रचाया।
अनुराग हृदय का सारा,
खिंचकर अधरों पर आया।।२६।।

चुपके से किसने कह दी,
कानों में यौवन-गाथा।
तन सकुच देख कर मन ही-
मन में मन सकुच रहा था।।२७।।

पलकों का गिरना, गिरि पर,
गिर गई तड़प कर बिजली।
अलकों का हिलना नभ में,
बदली ने करवट बदली।।२८।।

उर कुसुम-हार का कंपन,
गति थी सशस्त्र मन्मथ में।
या मचल उठा हो कोई,
झरना पथरीले पथ में।।२९।।

अनुराग चिन्ह बनते थे,
पग-ध्वनि के आलापों से।
लालिमा लिपट जाती थी,
उन गोरी पद-चापों से।।३०।।

   1
0 Comments